Tuesday, August 17, 2010

फूल चढ़ाकर करें भगवान को प्रसन्न

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
देïवताओं को फूल सर्वाधिक प्रिय हैं। यही कारण है कि सभी शुभ कार्यों और धार्मिक कर्मकांड़ों में पुष्पों का प्रयोग किया जाता है। यदि किसी भक्त के पास देवी देवताओं की प्रतिमाओं पर चढ़ाने केलिए धन, मिष्ठान्न, वस्त्र आदि कुछ भी नहीं है तो वह सिर्फ पुष्प अर्पित कर बड़ी सरलता है उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है। सावन के महीने में फूलों का महत्व और बढ़ जाता है। इसकी वजह यह है कि सावन का महीना खुशहाली और हरियाली का प्रतीक है। ऐसी मान्यता है कि इसी महीने भगवान राम ने माता सीता का और भगवान श्री कृष्ण ने राधा जी का फूलों से श्रृंगार किया था। इसी परंपरा का अनुपालन करते हुए आज भी सावन में मंदिरों में भगवान की मूर्तियों का फूलों से श्रंृगार किया जाता है। अमृतसर के दुग्र्याणा स्थित श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर में पूरे सावन में नवविवाहिताएं फूलों से तैयार जेवरों को धारण कर माथा टेकती है और परिवार की खुशहाली की प्रार्थना करती हैं। बृज क्षेत्र के मंदिरों में तो पूरी गर्मियों में फूल बंगलों की बहार रहती है। वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर में सजे फूल बंगले देखने केलिए बड़ी दूर दूर से श्रद्धालु आते हैं।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, July 16, 2010

मेरठ के विल्वेश्वरनाथ मंदिर में पूजा करती थी मंदोदरी


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
क्रांति नगरी के रूप में पूरे देश में विख्यात मेरठ शहर की एक और पहचान लंकाधिपति रावण की पटरानी मंदोदरी से भी जुड़ी है। मेरठ को त्रिपुर निर्माता दानवराज मय ने बसाया था। उसी के नाम पर इस शहर का नाम मयराष्ट्र पड़ा जो बाद में मेरठ हो गया। मय दानव की पुत्री थी मंदोदरी। मंदोदरी बड़ी रूपवती, धार्मिक और विदुषी महिला थी। वह शिवभक्त थी। मेरठ के सदर इलाके में स्थित प्राचीन विल्वेश्वरनाथ मंदिर में चिर कुमारी मंदोदरी पूजा किया करती थी।
हिंदू धर्म के इतिहास में रावण का नाम अगर बुराई के प्रतीक में लिया जाता है तो उसकी पत्नी मंदोदरी को नारी जाति को गौरव प्रदान करने वाली पतिव्रता महिला के रूप में याद किया जाता है। भारतवर्ष में पांच सती महिलाएं हुई हैं-अनसुइया, द्रोपदी, सुलक्षणा, सावित्री और मंदोदरी। इनमें मंदोदरी का नाम मेरठ से जुड़ा है। हिंदू धर्म के इतिहास के अनुसार मय दानव ने अप्सरा हेमा से विवाह किया थी। इनकी पुत्री मंदोदरी अत्यंत रूपवान थी। रामायण के बालकांड में गोस्वामी तुलसीदास ने उसकी सुंदरता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-मय तनुजा मंदोदरी नामा, परम सुंदरी नारी ललामा। अर्थात् मय दानव की मंदोदरी नामक कन्या परम सुंदरी स्त्रियों में शिरोमणि थी। रावण के पराक्रम से प्रभावित होकर मयासुर ने उससे मंदोदरी का विवाह किया था। मंदोदरी परम ज्ञानी महिला थी। वह समय-समय पर रावण को सलाह देकर उसे सत्य के मार्ग पर चलने केलिए कहती थी। सीता हरण केउपरांत मंदोदरी ने रावण से अनेक बार अनुरोध किया कि वह भगवान राम से बैर न ले। रावण हर बार उसकी बात हंसकर टाल देता था। यह भी कहा जाता है कि शतरंज के खेल का शुभारंभ भी मंदोदरी ने मनोरंजन के लिए किया था।

Saturday, January 9, 2010

अध्यात्म की अलख जगा रहीं आस्था भारती


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
साध्वी आस्था भारती रामकथा, कृष्णकथा, श्रीमद्भागवतकथा, कृष्णकथा, हरिकथा सुनाकर संपूर्ण देश में धर्म और अध्यात्म की अलख जगा रही हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति की उस रुढि़ को तोड़ा है जिसमें महिलाओं के व्यास पीठ पर बैठने को वर्जित माना गया है। दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के अधिष्ठाता आशुतोष महाराज की शिष्या आस्था भारती जब सुमधुर वाणी में प्रवचन करती हैं तो पांडाल के संपूर्ण परिवेश में उत्पन्न अध्यात्म की पवित्र रसधारा श्रोताओं को सराबोर कर देती है। उनकी वाणी से उत्पन्न प्रत्येक शब्द श्रोता के मन को भाव विभोर कर देता है। मेरठ का जीमखाना मैदान हो या दिल्ली के मॉडल टाउन का पांडाल, सभी स्थानों पर वह श्रोताओं को अध्यात्म की अद्भुत अनुभूति से साक्षात्कार कराने में समर्थ दिखाई देती हैं। नारियुक्त कलशों से सजे मंच की सज्जा भी मनमोहक होती है। कथा के दौरान १५ युवा साध्वियों का दल हारमोनियम, वायलिन, सितार, बांसुरी और मेंडोलिन आदि वाद्य यंत्रां के सुर कथा को संगतीमय बना देते हैं। लाल तिलक लगाए पीतवस्त्रधारी युवा साधक और चंदन का तिलक लगाए सुर्ख लाल वस्त्रधारी साध्वी सहज ही लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेती हैं। नौ दिन कथा के बाद दसवें दिन यज्ञ होता है। संगीतमय कथा से उपजी आध्यत्मिक अनुभूति श्रोताओं को आल्हादित कर देती है। साध्वी आस्था भारती के विचार व्यापक जनमानस की चेतना को आलोकित करने में समर्थ हैं।
आत्मा-परमात्मा के मिलन में ही परमानंद
आस्था भारती का मानना है कि आत्मा से साक्षात्कार करने पर ही मनुष्य को शांति प्राप्त होती है। आत्मा और परमात्मा के मिलन से ही मनुष्य को परमानंद की अनुभूति होती है। भौतिक संपदा से मनुष्य का शरीर तृप्त हो सकता है, आत्मा नहीं। भक्त की आत्मा सदैव ईश्वर से मिलन के लिए व्याकुल रहती है। सर्वशक्तिमान भगवान की लीलाएं हमेशा मनुष्य के लिए रहस्य बनी रही हैं। वह भगवान को अपनी बुद्धि के द्वारा समझाना चाहता है, जो कि संभव नहीं है। रावण, कंस और दुर्योधन जैसे लोगों को भगवान की लीलाओं से धोखा खाना पड़ा। भगवान की प्रत्येक लीला में आध्यात्मिक रहस्य छुपा होता है।
अंतरज्योति जागृत करने वाला ही गुरु
उनका मानना है कि मनुष्य को उसके अस्तित्व की पहचान कराना आवश्यक है। जीवन के लक्ष्य से अवगत कराने पर ही मनुष्य का कल्याण संभव है। तत्व ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु वह होता है जो मनुष्य की अंतर ज्योति को जागृत कर दे। अंतरज्योति जागृत होने पर ही ईश्वर के दर्शन प्राप्त करना संभव है। ज्ञान प्राप्त होने से ही मनुष्य समाज में अपनी पहचान बना पाता है। गुरु के सान्निध्य में मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है जिसे वह समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भली प्रकार से पूर्ण कर पाता है। आज अनेक लोग ईश्वर का नाम जपते हैं लेकिन प्रभु प्रकट नहीं होते हंै। इसका कारण यह यह है कि हम ईश्वर को जानते नहीं। जाने बिन न होई परतीती, बिन परतीती न होई प्रीति। बिना जाने हमें किसी चीज पर विश्वास नहीं हो सकता। यदि हम चाहते हैं जैसे प्रहलाद की नरसिंह भगवान ने, द्रोपदी और मीरा की कृष्ण ने रक्षा की थी, उसी तरह प्रभु हमारी रक्षा करें तो हमें किसी तत्वज्ञानी गुरु के समक्ष समर्पित होना पड़ेगा।
रुढियां तोड़कर व्यासपीठ पर विराजी महिलाएं
आस्था भारती के अनुसार मुगलकाल में सुरक्षा संबंधी कारणों से लड़की को घर के अंदर ही रखा गया। बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियां भी समाज में व्याप्त हुईं। इसी कारण लड़कियों और महिलाओं को लेकर समाज की रुढिवादी मनोवृत्ति बन गई। अब स्थिति बदल रही है। नारी शक्ति की गरिमा से संपूर्ण भूमंडल आलोकित हो रहा है। आज समस्त क्षेत्रों में महिलाएं अपनी पहचान बना रही हैं। प्राचीन काल से महिलाओं ने विविध क्षेत्रों में अपने ज्ञान की गरिमामय अभिव्यक्ति प्रदान की है। आज व्यापक फलक पर महिलाएं अपनी पहचान बना रही हैं। धर्म और अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में भी महिलाओं की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। रुढि़वादी मान्यताओं के विपरीत व्यासपीठ पर भी महिलाएं विराजमान हैं। धर्म क्षेत्र में सक्रिय नारियां समाज के व्यापक वर्ग का मार्गदर्शन करते हुए वैचारिक परिवर्तन में महती भूमिका निभा रही हैं। वह नारियों द्वारा कर्मकांड करने को पूर्णत: सही मानती हैं
अध्यात्म से ही देश का कल्याण
विदुषी का मानना है कि सुप्त नागरिकों में कोई चेतना जागृत कर सकता है तो वह आध्यात्मिक ब्रह्मïज्ञान ही है। साध्वी ने कहा कि हमारे तिरंगे में सबसे ऊपर केसरिया रंग आध्यात्म का प्रतीक है। यह भाव आज के समय सुषुप्त अवस्था में है। इसके बाद शांति का प्रतीक सफेद रंग है। शांति वहीं होगी जहां अध्यात्म होगा। तीसरा हरा रंग समृद्धि का प्रतीक है। जब तक आध्यात्म की भावना जागृत नहीं होगी तब तक देश और देशवासी तरक्की नहीं कर सकते। जब तक तत्वज्ञान नहीं होता तब तक मनुष्य जीवन भी अंधकारमय रहता है।
कर्मफल भोगता है मनुष्य
आस्था भारती की विचारणा है कि कर्मों का फल हर व्यक्ति को भोगना पड़ता है। बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह ने कृष्ण से पूछा कि उन्होंने ऐसे कौन से कर्म किए जो अंतिम समय में दारुण दुख सहना पड़ रहा है। कृष्ण ने बताया कि वह राज्य में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका में थे, ब्रह्मïचारी थे और प्रतिज्ञा निष्ठï थे। फिर भी वह द्रोपदी का चीरहरण होते हुए देखते रहे। ऐसे ही कर्मों का फल उन्हें इस जन्म में भोगना पड़ रहा है।
बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति के लिए माता पिता जिम्मेदा
साध्वी ने माता पिताओं को बच्चों में हिंसा की भावना को पनपने के लिए जिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा कि पहले लोग गुड्डïे गुडिय़ों से अपने बच्चों को खेलते देख खुश होते थे। अब बच्चे होली की पिचकारी भी खरीदते हैं तो गन वाली। महावीर और गौतम बुद्ध के देश में बढ़ रही हिंसक वारदातों पर रोक लगाने के लिए उन्होंने कहा कि हम अपने मूल परंपराओं से भटक रहे हैं। मनुष्य को ब्रह्मज्ञान कराना जरूरी है और वर्तमान समय में यह भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व की आवश्यकता है।
(अमर उजाला के नौ जनवरी २०१० के अंक में श्रद्धा पेज पर प्रकाशित)

Wednesday, December 2, 2009

शिव शक्ति स्वरूपा है नारी

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र

संपूर्ण सृष्टि में नारी ही सबसे सुंदर क्यों है? उसे शक्ति स्वरूपा क्यों कहा जाता है? क्यों भारतीय संस्कृति में नारी को सर्वाधिक गौरवशाली स्थान दिया गया है? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर शिव पुराण में निहित हैं। दरअसल, आत्माओं को मनुष्य रूपी चोला धारण सांसारिक सुख प्रदान करने केलिए सृष्टि की रचना का विधान किया गया। ब्रह्मा जी को सृष्टि की रचना करने का गुरुतर दायित्व दिया गया । उन्होंने बड़े मनोयोग से सृष्टि की रचना की लेकिन इस सृष्टि में वृद्धि का विधान नहीं था । इससे ब्रह्मा जी चिंतित होने लगे। उनकी चिंता थी कि जो एक बार रच गया वह आयु पूर्ण होने पर नष्ट हो जाएगा तो फिर सृष्टि का चक्र कैसे आगे बढ़ेगा। सृष्टि आगे न बढ़ पाने की चिंता ने ब्रह्मा जी को उद्वग्नि कर दिया । तब आकाशवाणी हुई और उन्हें ऐसी सृष्टि की रचना करने का संदेश मिला जिसका चक्र मैथुन के माध्यम से अनवरत चलता रहे ।
ब्रह्मा जी ने मैथुनी सृष्टि की रचना करने का संकल्प लिया लेकिन यहां पर भी उनके समक्ष एक गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई। प्रथम सृष्टि में नारी की रचना ही नहीं हुई थी । अत: ब्रह्मा जी मैथुनी सृष्टि करने में असमर्थ रहे। इस समस्या के निदान के लिए उन्होंने देवादिदेव महादेव को प्रसन्न करने की ठानी और कठोर तप किया । शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर अर्धनारीश्वर के रूप में प्रकट हुए । शिव की शक्ति स्वरूपा नारी का इस पृथ्वी पर अवतरण हुआ। अर्धनारीश्वर शिव ही नारी और पुरुष के दो रूप हैं जिनके माध्यम से सृष्टि की प्रक्रिया आगे बढ़ी । नारी को शिव ने अपनी शक्ति से प्रकट किया, इसलिए वह शक्ति स्वरूपा कहलाई । स्त्री और पुरुष शिव के ही दो प्रतीकात्मक रूप हंै और उनकी रागात्मक अभिव्यक्ति के रूप में सृष्टि का चक्र अनवरत अपनी गति से आगे बढ़ रहा है ।
नारी को रूप और सौंदर्य इसलिए मंडित किया गया ताकि सृष्टि के संचालन के लिए जिस रागात्मकता की आधारभूत आवश्यकता होती है, वह चिरंतन बनी रहे । उसे शक्ति स्वरूपा के रूप में स्थापित किया गया ताकि समाज में संतुलन बना रहे। वह सृष्टि में समर्थ है, इसीलिए सर्वाधिक सम्मानीय है। सृष्टि और समाज दोनों के कुशल संचालन और उत्तरोत्तर विकास के लिए जरूरी है कि दोनों के बीच रागात्मक संबंध बना रहे । इसी के लिए स्त्री-पुरुष संबंधों के विविध रूप स्थापित किए गए। पति-पत्नी का श्रेष्ठ संबंध भी इसी रूप की अभिव्यक्ति है । समाज के भौतिक विकास के लिए इन दोनों में तालमेल जरूरी है। इनका तालमेल बिगड़ते ही सामाजिक विसंगतियां पैदा होने लगती हैें।
प्रेम का पवित्र भाव समाज का मूल आधार है। प्रेमी-प्रेमिका का संबंध भी सृष्टि में रागात्मकता की वृद्धि करता है । प्रेम चिरस्थायी रहे, यह सृष्टि के लिए आवश्यक है । इसीलिए मनुष्य मात्र में परस्पर प्रेम भाव के विकास लिए प्रयास किए जाने चाहिए। ऐसा होने पर संपूर्ण सृष्टि में स्वत: शांति की स्थापना हो जाएगी ।

(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Friday, August 14, 2009

गीता के उपदेशों को आत्मसात करके ही सांसारिक दुखों से मुक्ति

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
आज पूरे विश्व में भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। जन्माष्टमी पर मंदिरों में भव्य झांकिया सजी हैं और जगह-जगह आयोजन हो रहे हैं। यह आयोजन उनके संदेशों की याद दिलाते हैं। संपूर्ण सृष्टि को प्रेम का संदेश देने वाले भगवान कृष्ण का जीवन दर्शन अद्भुत है। वास्तव में भगवान कृष्ण ने मानव कल्याण के लिए अवतार लिया था। उनके संदेश समस्त विश्व को श्रेष्ठ जीवन जीने की कला का मर्म बताते हैं। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन परिजनों को सामने देखकर विचलित हुए तो भगवान कृष्ण ने उन्हें राह दिखाई। गीता के माध्यम से उन्होंने संपूर्ण मनुष्य जाति को जीवन का मर्म बताया। उनके उपदेश निर्भयतापूर्वक जीवन जीने का संदेश देते हैं। उन्होंने कहा आत्मा अमर है। वह न कभी मरती है और न जन्म लेती है। शरीर पंचतत्वों-अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश-से बना है और इन्हीं में विलीन हो जाता है। आत्मा शरीररूपी चोला बदलती रहती है। मनुष्य खाली हाथ संसार में आता है और खाली हाथ ही जाता है। मनुष्य का अपना कुछ है ही नहीं तो फिर खोने का डर क्यों ? इसलिए माया मोह में नहीं पडऩा चाहिए। माया मोह ही मनुष्य के सभी दुखों का मूल कारण है। ध्यान रखो, जो आज तुम्हारा है, वह कल किसी और का होगा। परिवर्तन प्रकृति का नियम हैं। डर, चिंता, दुख, और निराशा से मुक्ति पाने के लिए स्वयं को भगवान को समर्पित कर दो। मौजूदा दौर में भौतिकवादी चिंताओं के चलते अधिकांश मनुष्य दुख, निराशा, अवसाद, मायूसी और तनाव से घिरे रहते हैं। ऐसे में अगर मनुष्य अगर गीता के मर्म को अपने जीवन में आत्मसात कर ले तो वह इस संसार में अधिक सुखपूर्वक रह सकता है। वह अनेक किस्म के डर और चिंताओं से वह मुक्त हो सकता है। जीवन का पूर्ण आनंद ले सकता है।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)